Tuesday, April 5, 2016

मौर्योंत्तर काल



शुंग काल  
शुङ्ग वंश मौर्य वंश के पश्चात का राजवंश हैं।
हर्षचरित व पुराणों से पता चलता है कि सेनापति पुष्यमित्र ने अपने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की।पुष्यमित्र का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था तथा विदिशा उसके राज्य का एक प्रमुख नगर था। “मालविकाग्निमित्रम’ के अनुसार पुष्यमित्र वे शासन काल में उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा में गोप्तु (उपराजा) के रुप में शासन का संचालन करता था। अग्निमित्र ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन के साथ युद्ध करके विदर्भ के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।
सन् ४८ ई. पू. में पुष्यमित्र की मृत्यु हो गयी। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार इस वंश में कुल १० शासक हुए —
क. पुष्यमित्र
ख. अग्निमित्र
ग. वसुज्येष्ठ
घ. वसुमित्र
ड़. अंध्रक (ओद्रक)
च. पुलिद्वक
छ. घोष
ज. वज्रमित्र
झ. भागभद्र और
ट. देवभूति।
इन सबने मिलकर ११२ वर्ष तक राज्य किये।अग्निमित्र के उत्तराधिकारियों के संबंध में विशेष रुप से कुछ ज्ञात नहीं है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर पाँचवें शासक ओद्रक (अंधक) व नौंवे शासक भागभद्र के विदिशा में राजनीतिक गतिविधियों का साक्ष्य मिलता है। कहा जाता है कि नौवें शासक भागभद्र का संबंध विदिशा स्थित गरुड़ स्तंभ से है, जिसे स्थानीय लोग खानबाबा (खम्भबाबा) के नाम से पुकारते है। यहाँ उत्कीर्ण लेख के अनुसार यूनानी शासक अंतलिकित ने अपने राजदूत हेलियोदोरस को भारतीय नरेश भागभ्रद की राजसभा में राजदूत के रुप में भेजा था। विदिशा में रहते हुए हेलियोदोरस भागवत धर्म का अनुयायी बन गया तथा विष्णु मंदिर के सम्मुख एक गरुड़- स्तंभ का निर्माण करवाया।
अभिलेखित साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारियों का पूर्वी मालवा (विदिशा) क्षेत्र पर अधिकार अंत तक बना रहा।
पुराणों के अनुसार अंतिम राजा देवभूमि अति कामुक था। उसके अमात्य कण्ववंशीय वसुदेव ने उसकी हत्या कर कण्व वंश की स्थापना की। 
सातवाहन काल 
पुराणों के अनुसार सिमुक ने पूर्वी मालवा (विदिशा) क्षेत्र में शासन करने वाले कण्वों तथा शुंगों की शक्ति को समाप्त कर सातवाहन वंश की स्थापना की है। सातवाहन वंश का सबसे पराक्रमी राजा शातकार्णि प्रथम को माना जाता है। पुराणों में इसकी चर्चा कृष्ण (कान्ह) के पुत्र के रुप में की गई है, जिनका शासनकाल संभवतः ३७ ई. पू. से २७ ई. पू. था। गौतमीपुत्र शातकार्णि ने अपने प्रांतों पर विजय कर अपने वंश की लुप्त गौरव को प्रतिष्ठा दी। साँची के बड़े स्तूप की वेदिका पर उत्कीर्ण एक लेख से शातकर्णि के पूर्वी मालवा क्षेत्र पर अधिकार का पता चलता है।
शातकर्णि की मृत्यु के बाद उनकी रानी नागानिका ने अपने अल्पवयस्क पुत्रों के संरक्षक के रुप में राज्य किया।
पुराणों से प्राप्त वंशावली के अनुसार इस कुल का छठा राजा का नाम भी शातकर्णि था। विद्वानों ने इसे शातकर्णि द्वितीय के नाम से पुकारा है। उज्जयिनी से मिले “रजोसिरि सतस’ नामांकित सिक्के शातकर्णि द्वितीय के द्वारा ही मुद्रित सिक्के माने जाते हैं। इस प्रकार शातकर्णि द्वितीय का अवन्ति पर शासनाधिकार सिद्ध होता है।
गौतमीपुत्र शातकार्णि सातवाहन वंश का सबसे बड़ा व पराक्रमी राजा था। उसके पुत्र वसिष्ठिपुत्र पुलुमावी के नासिक अभिलेख में उसकी सफलताओं का वर्णन मिलता है। इस अभिलेख में उसे पुनः सातवाहन वंश की स्थापना करने वाला, क्षत्रियों के दपं और मान का मर्दन करने वाला तथा क्षहरात वंश का निर्मूलन करने वाला बताया गया है। इनके शासन क्षेत्र की सूची में अनूप (महिष्मती के आसपास का निभाड़), आकर (पूर्वी मालवा) और अवन्ति (पश्चिम मालवा) भी शामिल है।
सातवाहन वंश का अंतिम प्रतापी नरेश यज्ञरी शातकर्णि था, जिसने १६५ ई. से १९३ ई. तक राज्य किया। उज्जयिनी लक्षण मुद्रित सिक्कों से उसके उज्जयिनी पर शासन का प्रमाण मिलता है।
शकों का शासनसाधारणतः विद्वानों का मत है कि उज्जयिनी में शकों का शासन लगातार तब तक चलता रहा, जब तक की चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन के समय में मालवा गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं हो गया। इस काल के मालवा के इतिहास से संबंधित बहुत कम अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध होते हैं। अतः हम मुद्राशास्रीय साक्ष्यों पर ही पूर्णरुपेण निर्भर हैं। शकों की संयुक्त शासन- प्रणाली में यह परंपरा थी कि वरिष्ठ शासक “महाक्षत्रय’ की उपाधि धारण करता था तथा अन्य कनिष्ठ शासक “क्षत्रय’ कहलाते थे। पश्चिमी क्षत्रपों के समय- समय पर मिलते रहे, सिक्कों से ज्ञात होता है कि “महाक्षत्रय- उपाधि’ बीच- बीच में नहीं मिलती है।
पार्थियन नरेशों की सिंधु प्रदेश की विजय के फलस्वरुप पंजाब तथा उत्तर- पश्चिम सीमांत प्रदेश में शक सत्ता का अंत हो गया और शकों की एक शाखा पश्चिमी भारत में अपने राज्य की स्थापना की। इसी शाखा से जुड़े राजवंश हैं —
१. क्षहरात वंश
२. कार्दभक वंश।
क्षहरात वंश का प्रथम ज्ञात क्षत्रप क्षहरात भूभक है। मुद्राओं के अध्ययन से उसके उज्जैन व भिलसा पर अधिकार का प्रमाण मिलता है। क्षहरात वंश का सबसे शक्तिशाली शासक नहपान हुआ। वह सातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकर्णि का समकालीन था। नासिक अभिलेख से विदित होता है कि गौतमी पुत्र शातकर्णि ने नहपान ने आकर (पूर्वी- मालवा) तथा अवन्ति (पश्चिमी- मालवा) को छीनकर उन पर अधिकार कर लिया।क्षहरात कुल के समूल विनाश के पश्चात पश्चिमी भारत में कदिभक- कुल के शकों का आविर्भाव हुआ। चष्टन इन वंश का प्रथम क्षत्रप था। अंधाऊ अभिलेख से पता चलता है कि चष्टन और उसका पौत्र रुद्रदामन साथ मिलकर शासन करते थे। टालमी के भूगोल (१४० ई.) पता चलता है कि अवन्ति या पश्चिम मालवा की राजधानी पर हिमास्टेनीज का अधिकार था। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चष्टन ने नहपान द्वारा खोए हुए कुछ प्रदेशों को सातवाहनों से पुनः जीतकर उज्जैन को अपनी राजधानी बनाई।
चष्टन के बाद उसका पौत्र रुद्रदामन प्रथम क्षत्रप बना। रुद्रदामन प्रथम के जूनागढ़ अभिलेख (१५० ई.) से विदित होता है कि उसने अपने पितामह के क्षत्रय के रुप में आकर (पूर्वी मालवा) तथा अवन्ति (पश्चिमी मालवा) को गौतमी पुत्र शातकर्णि व उसके उत्तराधिकारी को पराजित करके जीता था। उपरोक्त प्रमाण बताते हैं कि रुद्रदामन प्रथम के शासनकाल में पूर्वी और पश्चिमी मालवा शक साम्राज्य के अभिन्न अंग थे।
रुद्रदामन प्रथम के बाद भी कदिर्भक वंश के शक नरेशों का मालवा से संबंध बना रहा और वे उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाकर शासन- संचालन करते रहे। भतृदामन का पुत्र विश्वसेन चष्टन वंश का अंतिम क्षत्रप था। भर्तृदामन और विश्वसेन की मुद्राएँ गोंदरमऊ सिरोह तथा साँची से प्राप्त हुई है। इन सिक्कों का अधिक संख्या में मिलना इस बात का संकेत है कि इन्होंने अपने वंश की खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त किया।
चष्टन वंश के पतन के पश्चात शासन करने वाले परवर्ती शक- क्षत्रपों के कुछ सिक्के व अभिलेख मालवा- क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं, जिनसे उन राजाओं के शासन- काल के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक रुद्रसिंह द्वितीय (स्वामी जीवदामन का पुत्र) था, जिसके सिक्के (शक संवत २२७- ३०४ ई.) साँची, गोदरमड (सिरोह) आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। रुद्रसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी यशोदामन द्वितीय (शक संवत ३१६- ३३२), रुद्रदामन द्वितीय, रुदसेन (तृतीय ३४८- ३७८ ई.), सिंहसेन, रुद्रसेन चतुर्थ, सत्यसिं तथा रुद्रसिंह तृतीय था।
रुद्रसेन तृतीय का शासन- काल करीब ३० वर्षों का था। उसके सिक्के आवरा (मंदसौर), गोंदरमऊ (सिरोह) तथा साँची से प्राप्त होते हैं। सिंहसेन से लेकर वंश के अंतिम शासक रुद्रसिंह तृतीय तक काशासन काल लगभग ३८२ ई. से ३८८ ई. तक रहा। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने व्यक्तिगत रुप से शकों के विरुद्ध पश्चिमी भारत के शक- नरेश रुद्रसिंह तृतीय को परास्त कर पश्चिमी मालवा पर अधिकार कर लिया तथा अपने पुत्र गोविंद गुप्त को उज्जयिनी का शासक नियुक्त किया।
विदिशा- एरण क्षेत्र में शासन करने वाले एक नये शक वंश का पता चलता है, जिसके शासक श्रीधर वर्मन का एक अभिलेख एरण तथा दूसरा साँची के निकट कानखेरा से प्राप्त हुआ है। कानखेरा अभिलेख से मालूम पड़ता है कि श्रीधर वर्मन ने एक सैनिक अधिकारी के रुप में अपने जीवन की शुरुआत की। बाद में वह सामंत शासक बना तथा आमीरों की शक्ति क्षीण होने पर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। कानखेड़ा व एरण से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार उसके शासन काल ३३९ ई. ३६६ ई. के मध्य रही होगी। समुद्रगुप्त ने श्रीधरवर्मन के राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। 
कुषाण 
मथुरा के इतिहास में यहाँ की जनता शक-क्षत्रपों के समय सर्वप्रथम विदेशी सम्पर्क में आई परन्तु उनकी अपेक्ष उस पर कुषाण शासन का प्रभाव अधिक चिरस्थाई रुप से पड़ा। इस समय यहाँ के कलाकारों को अपनी जीविक के लिए विदेशीय का ही आश्रय ढूँढ़ना पड़ा होगा। इन्हीं कारणों से कवि के समान कलाकार की छेंनी में भी कुषाण प्रभाव झलकने लगा। नवीन संस्कृति नवीन शासक और नवीन परम्पराओं के साथ नवीन विचारों का प्रार्दुभाव हुआ जिसने एक नवीन कला शैली को जन्म दिया जो ‘मथुरा कला’ ‘कुषाण कला’ इस अर्थ में उन सभी शैलियों का समावेश होगा जो सोवियत तुर्किस्तान से सारनाथ तक फैले हुए विशाल कुषाण साम्राज्य प्रचलित थी। इस अर्थ वल्ख की कला, गांधार की यूनानी बौद्ध कला, सिरकप (तक्षशिला) की कुषाण कला तथा मथुरा की कुषाण कला का बोध होगा।
कुषाण सम्राट कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव का शासन काल माथुरी कला का ‘स्वर्णिम काल’ था। इस समय इस कला शैली न पर्याप्त समृद्धि और पूर्णता प्राप्त की। यद्यपि यहाँ की परम्परा का मूल ‘भरहूत’ और ‘साची’ की विशुद्ध भारतीय धारा है यथापि इसका अपना महत्व यह है कि यहाँ प्राचीन पृष्ठभूमि पर नवीन विचारों से प्रेरित कलाकारों की छेनी ने एक ऐसी शैली को जन्म दिया जो आगे चलकर अपनी विशेषताओं के कारण भारतीय कला की एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण शैली बन गई। इस कला ने अंकनीय विषयों का चुनाव पूर्ण सहष्णुता के साथ किया। इसके पुजारियों ने विष्णु, शिव, दुर्गा, कुबेर, सूर्य आदि के साथ-साथ बुद्ध और तीर्थ करों की भी मानव रुप से अर्चना की। इन कलाकृतियों को निम्नांकित वर्गों में बाँटा जा सकता है –
– जैन तीर्थ कर प्रतिमाएँ
– आयागप
– बुद्ध व बोधिसत्व प्रतिमाएँ
– ब्राहम्मण धर्म की मूर्तियाँ
– यक्ष-यक्षिणी, नाग आदि मूर्तियाँ तथा मदिरापान के द्रव्य
– कथाओं से अंकित शिलाप
– वेदिका स्तम्भ, सूचिकाएँ, तोरण, द्वारस्तम्भ, जातियाँ आदि
– कुषाण शासकों की प्रतिमाएँ
कुषाण कला की विशेषताएँ –
– विविध रुपों में मानव का सफल चित्रण। 
– मूर्तियों के अंकन में परिष्कार। 
– लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएँ। 
– प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मधुर मिलावट। 
– गांधार कला का प्रभाव। 
– व्यक्ति विशेष की मूर्तियों का निर्माण।
१. विविध रुपों में मानव का सफल चित्रण
कुषाण काल में मनुष्य और पशुओं के सम्मुख चित्रण की पुरानी परम्परा छोड़ दी गई। साथ ही साथ मानव शरीर के चित्रण की क्षमता भी बढ़ गई। विशेषत: रमणी के सौंदर्य को रुप-रुपांतरों में अंकित करने में मथुरा का कलाकार पूर्णत: सफल रहा। स्तन्य की ओर संकेत करने वाली स्नेहमयी देवी, झुँन-झुँना दिखलाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाली माता विविध प्रकार के अलंकारों से अपने को मण्डित करने वाली युवतियाँ, धनराशि के समान श्याम केशकलाप को निचोड़ते हुए उनके कारण मोर के मन में उत्सुकता जमाने वाली प्रेमिकाएँ, उन्मुक्त आकाश के नीचे निर्झर स्नान करने वाली मुग्धाएँ, फूलों को चुनने वाली अंगनाए, कलश धारिणी गोपवधू, दीपवाहिका, विदेशी दासी, मधपान से मतवाली वेश्या, दपंण से प्रसाधन करने वाली रमणी आदि अनेकानेक रुपों में नारी को मथुरा के कलाकारों के द्वारा पूर्ण सफलता के साथ दिखलाया गया।
पुरुषों के चित्रण में भी वे पीछे नहीं थे। धन संग्रह के प्रतीक बड़ी तोंद वाले कुबेर, ईरानी वेश में सूर्य, राजकीय वेश में कुषाण दरबारी, विदेशी पहरेदार फीतेदार चप्पल धारण किए सैनिक, भोले-भाले उपासक, विविध प्रकार की पगड़ियाँ बाँधे हुए पुरुष, बहुमूल्य वस्रालंकारों से मण्डित बोधिसत्व आदि छोटे-बड़े वर्ग के पुरुष और देवता बड़ी ही कुशलता से अंकित किए गए हैं।
२. मूर्तियों के अंकन में परिष्कार
कुषाण काल की मूर्तियाँ शुंग काल के सामना चपटी न होकर गहराई के साथ उकेरी गई हैं। प्रारम्भिक अवस्था की तुलना में अब आकृतियों की ऊँचाई बढ़ जाती है।१  उसी अनुपात में निम्नकोटी की आकृतियों की ऊँचाई में भी बुद्धि होती है। मथुरा की प्रारम्भिक कलाकृतियों की स्थूलता और भोड़ापन कुषाण काल में पहुँचते-पहुँचते है। मांसल और सुडौल शरीर में बदल जाता है वस्रों के पहनावे में भी सुरुचि की मात्रा बढ़ जाती है। अब उत्तरीय चपटे रुप में नहीं पड़ता अपितु मोटी घुमावदार रस्सी के रुप में दिखलाई पड़ता है।२  प्रारम्भिक कुषाण काल की मूर्तियों में केवल बाँया कन्धा ढका रहता है और कमर के ऊपर वाला वस्र का भाग शरीर से सटा हुआ कुछ पारदर्शक सा रहता है, नीचे वाले भाग की ओर कुछ अनुपातत: कुछ काम ध्यान दिया गया है। जाँघ और पैरों की बनावट में एक प्रकार की कढ़ाई दिखलाई पड़ती है।३  कुषाण काल के मध्य में यह दोष हट जाता है और बहुधा मूर्तियाँ एक घुटना किंचित मोड़कर खड़ी दिखलाई पड़ती हैं।४
इस काल के मूर्ति निर्माण की दूसरी विशेषता मूर्तियों का आगे और पीछे दोनों ओर से गढ़ा जाता है। इस काल की बहुसंख्यक मूर्तियाँ ऐसी ही हैं। सम्मुख भाग के समान कलाकार ने प्रष्ठ भाग की ओर भी खूब ध्यान दिया है। इसकी दो पद्धतियाँ थीं, तो पीछे की ओर पीठ पर लहराते हुए केश कलाप, आभरण, उत्तरीय आदि वस्र आदि दिखलाए जाते थे अथवा पशु-पक्षियों से युक्त वृक्ष अंकित किए जाते थे।५
३. लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएँ ६
जातक कथाओं के समान अनेक दृश्यों वाली कथाएँ ‘भूर हूत’ तथा ‘सांची’ में भी अंकित की गई थी, परन्तु वहाँ पद्धति यह थी कि एक ही चौखट के भीतर अगल-बगल या तले ऊपर कई दृश्यों को दिखलाया जाता था, पर अब प्रत्येक दृश्य के लिए अलग-अलग चौखट दिये जाने लगे। उदाहरणार्थ मथुरा से प्राप्त एक द्वारस्तम्भ पर अंकित नंद-सुन्दरी की कथा७  कई चौखटों में इस प्रकार सजाई गई है कि उससे सम्पूर्ण द्वार स्तम्भ सुशोभित हो सके। चौखटें अलग-अलग होने के कारण उनके भीतर बनी मूर्तियों के आकार भी सरलता से ऊँचे बनाए जा सके।
४. प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मिलावट
ɬɖ?ɠके कलाकारों ने परम्परा से चले आने वाले वृक्ष, लता, और पशु-पक्षियों के अभिप्रायों को अपनाते हुए साथ ही अपनी प्रतिभा से देश काल के अनुरुप नवीन अभिप्रायों का सृजन किया। उसका फल यह हुआ कि मथुरा की कला में प्रकृति और उसके अनेक रुपों का अंकन मिलता है। यहाँ विविध वृक्ष लताएँ, मगर, मछलियाँ आदि जलचर, मोर, हंस, तोते, आदि पक्षी व गिलहरियाँ, बन्दर, हाथी, शरभ, सिंह आदि छोटे-बड़े पशु सभी दिखलाई पड़ते हैं। पुष्पों में यदि केवल कमल और कमल लता को ही लें तो उसके अनेक रुप दृष्टिगोचर होते हैं। ईहामृग या काल्पनिक पशु-पक्षियों जैसे-तोते की चोंच वाला मगर, मानव मुख वाला मेंढ़क आदि का भी यहाँ अभाव नहीं है।
कुषाण कालीन कला में दृष्टिगोचर होने वाले अभिप्रायों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है।८
१. प्राचीन भारतीय पद्धति के अभिप्राय।
२. नवीन अभिप्राय जिनमें से कुछ पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है।
प्रथम प्रकार के अभिप्राय वे हैं जो विशुद्ध रुप से भारतीय हैं और गांधार कला के सम्पर्क के पूर्व बराबर व्यवछत होते थे, इनमें पशु-पक्षियों के अतिरिक्त दोहरे छत वाल विहार, गवाक्ष, वातायन, वेदिकाएँ, कपि-शीर्ष, कमल, मणि माला, पंच्चवाट्टिका, घण्टावली, हत्थे या पंचाङ्गुलितल, अष्ट मांगलिक चिन्ह यथा पूर्णघट भद्रासन, स्वास्तिक, मीन-युग्म, शराव-सम्पुट, श्रीवत्स, रत्नपात्र, व त्रिरत्न आदि का समावेश होता है।
नवीन अभिप्रायों से तात्पर्य उन अभिप्रायों से है जो गांधार कला के सम्पर्क में आने के बाद मथुरा की कलाकृतियों में भी अपनाए गए इनमें (CORINTHIAN FLOWER) भटकटैया का फूल, प्रभामण्डल, मालाधारी यक्ष, अंगूर की लता, मध्य एशिया और ईरानी पद्धति के ताबीज के समान अलंकार आदि की गणना की जा सकती हैं।
५. गांधार कला का प्रभाव
कुषाणों के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भारत में कला की एक नव-शैली विकसित हुई। यह भारतीय और यूनानी कला का एक मिश्रित रुप था। जिस गांधार प्रदेश में इसका बोल-बाला रहा, उसी के आधार पर इसे ‘गांधार कला’ के नाम से कला जगत पहचाना गया है। एक ही शासन की छत्र छाया में पनपने के कारण इन शैलियों का परस्पर सम्पर्क में आना स्वाभाविक था, परन्तु दोनो के मूलभूत सिद्धान्त अलग थे। गांधार कला पर यूनानी कला का गहरा प्रभाव था। वा मानव चित्रण के बहिरंग पक्ष को अधिक महत्व देती थी। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में पली हुई मथुरा कला भाव पक्ष की ओर बढ़ती चली जा रही थी। फल यह हुआ कि गांधार कला से मथुरा के कलाकार कुछ सीमित अंश तक प्रभावित हुए। इनमें उन्होंने न केवल निर्माण सिद्धान्त ही अपनाए, वरन उनकी कुछ कथावस्तुओं को भी मूर्त रुप दैने का प्रयत्न किया। उदाहरणार्थ यूनानी योद्धा ‘हरक्यूलियस’ का ‘नेमियनसिंह’ के साथ जो युद्ध हुआ था, उस दृश्य का चित्र मथुरा कला में प्राप्त होता है।
तथापि यह भी सत्य है कि मथुरा की सम्पूर्ण कलाकृतियों में यूनानी प्रभाव दिखलाने वाली प्रतिमाओं की संख्या बड़ी ही अल्प है। इस प्रभाव को सूचित करने वाले अंश निम्नांकित हैं –
१. बुद्ध और बोधिसत्वों की कुछ मूर्तियाँ जो अधोलिखित विशेषताओं से युक्त हैं –
(i) अर्थवर्तुलाकार धारियों वाला वस्र, जिससे बहुधा दोनों कंधे और कभी-कभी पूरा शरीर ढका रहता है (चित्र ४८)।
(ii) मस्तक पर लहरदार बाल।
(iii) नेत्र और होंठ भरे हुए तथा धारदार, विशेषतया ऊपर की पलकें भारी रहती हैं।
२. बुद्ध जीवन को अंकित करने वाले कतिपय दृश्य, जैसे मथुरा संग्रहालय की मूर्ति संख्या ००.एच.१, ००.एच.७, ००.एन.२, ००.एच.११.
३. कला के कुछ नवीन अभिप्राय, जैसे मालाधारी यक्ष, गरुड़, द्राक्षलता आदि।
४. मदिरापन के दृश्य९
गांधार कला की एक सुन्दर नारी की मूर्ति जो ‘हरिति’ डॉ. वी. एस. अग्रवाल उसे कम्बोजीका की प्रतिमा मानते हैं जिसका नाम सिंहशीर्ष पर अंकित लेख में मिलता है। अत: सिंहशीर्ष और यह गांधार प्रतिमा मथुरा के एक ही स्थान से अर्थात् सप्तर्षि टीले से मिले थे। ‘कम्बोजिका’ आदि नामों से पहचानी जाती है (चित्र ४३-४४) मथुरा क्षेत्र से ही प्राप्त हुई है। उसका उल्लेख इस सन्दर्भ में आवश्यक है। संभव है कि गांधार कला की यह कलाकृति किसी प्रेमी ने यहाँ मंगवाकर स्थापित की है।
६. व्यक्ति विशेष की मूर्तियों का निर्माण
भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अभिलिखित मानवीय आकारों में निर्मित प्रतिमाएँ दिशलाई पड़ती हैं। कुषाण सम्राट ‘वेमकटफिश’, कनिष्क एवं पूर्ववर्ती शासक चन्दन की मूर्तियाँ ‘माँट’ नामक स्थान से पहले ही मिल चुकी हैं। एक और मूर्ति जो संभवत: कुषाण सम्राट ‘हुविष्क’ की हो सकती है, इस समय ‘गोकर्णेश्वर’ के नाम से मथुरा में पूजी जाती है। ऐसा लगता है कि कुषाण राजाओं को अपने और पूर्वजों के प्रतिमा मन्दिर या ‘देवकुल’ बनवाने की विशेष रुचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल मन्दिर या ‘देवकुल’ बनवाने की विशेष रुचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल तो ‘भाँट’ में था। इन स्थानों से उपरोक्त लेखांकित मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य राजपुरुषों की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई है, किन्तु वे लेख रहित है।
इस संदर्भ में यह भी अंकित करना समीचीन होगा, कि कुषाण सम्राटों का एक और ‘देवकुल’ जिसे वहाँ ‘बागोलांगो’  कहा गया है, अफगानिस्तान के ‘सुर्खकोतल’ नामक स्थान पर था। यहाँ के पुरातात्विक उत्खन्न के पश्चात इस ‘देवकुल’ की सारी रुपरेखा स्पष्ट हुई है।

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